Wednesday, June 26, 2013

पहाड़ों पे चौतरफा आफत

पहाड़ों पे आई पहाड़ सी आफत में एक एक साल सरीखे बीत रहे एक एक दिन। जहाँ बचाव दल अपने काम में जुटे हैं वहीँ इस आपदा के पीछे छिपे रहस्य पर भी मंथन चल रहा है. जाहिर है इतनी बड़ी तबाही के बाद कोई नहीं चाहेगा की ऐसा दोबारा कभी हो. गौर करें तो पहाड़ों पे चौतरफा हमला हो चुका है. देवभूमि के गुनाहगारों ने 1991 में उत्तरकाशी में भयानक भूकंप से कोई सीख नहीं ली जिसकी कीमत लोगों को अपनों को खोकर चुकानी पड़ रही है. 
1. लोगों को जो बात बार बार परेशान कर रही है वो उत्तराखंड के विकास से विनाश की तैयार होती पृष्ठभूमि को लेकर है. एक तरफ वैज्ञानिक कह रहे हैं कि विस्फोटक पहाड़ों को कमजोर कर रहे हैं. डायनामाइट और डेटोनेटर उत्तराखंड के कच्चे पहाड़ों को अन्दर से खोखला कर रहे हैं. 2006 से 2011 के बीच उत्तराखंड में 20,632 किलो डायनामाइट पहाड़ तोड़ने में प्रयोग हुआ जबकि 1,71,235 डेटोनेटर लगा कर पहाड़ छलनी कर दिए गये. उत्तराखंड भूकंप के लिहाज से अतिसंवेदनशील यानि हाई सीस्मिक जोन में आता है. यहाँ 1991 में उत्तरकाशी का भूकंप अब भी लोगों के मन में तारी है. डेटोनेटर और डायनामाइट का प्रयोग इस स्थिति को और बिगाड़ रहा है. 
2. उत्तराखंड में बन रहे बडे बडे बांधों से प्रकृति की नैसर्गिकता ख़त्म हो रही है. श्रीनगर बाँध से एक साल में पांच लाख घन मीटर गाद निकाली जाती है जो नदी मैदानी इलाकों को उर्वर बनाने के लिए बहा के ले जाती थी. उत्तराखंड में 70 बांधों पर काम चल रहा है और हर बाँध से प्रति वर्ष 2 लाख घन मीटर गाद निकलने का अनुमान है. गढ़वाल रीजन में चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी, रुद्रप्रयाग व पौड़ी में 31 हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट चल रहे हैं. इन प्रोजेक्ट से सिर्फ गाद से ही बड़ी मात्रा में विनाश का सामान तैयार हो रहा है. 
3. वनों से भरे उत्तराखंड में पेड़ों की कटाई जोरों पर है. वन माफिया ने भ्रष्टाचार का घुन अफसरों में भर कर यहाँ की हरियाली पर आरी चला दी है. वन ऐसा क्षेत्र है जहां किसी की नजर नहीं जाती और काम चुपके चुपके चलता रहता है. बार बार बादल फटने की घटनाएँ आगाह कर रही हैं कि ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने से बादलों की पानी रोकने की क्षमता कम होती जा रही है. बाजारवाद की गिरफ्त में जकड़ी व्यवस्था से जुड़े लोग आपदा के सताए लोगों के दुःख पर घड़ियाल के आंसू बहा कर किनारा कर लेंगे लेकिन ये जिस तरह की व्यवस्था के अंग हो चुके हैं ये कुछ भी कर पाने में असहाय हैं. 
4. पर्यटन को राजस्व का मुख्य स्रोत बनानेवाली राज्य सरकार पर भी कुछ विचार करना समीचीन होगा. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद सड़क निर्माण में तीन गुना की वृद्धि हुई है. राज्य बनने तक इस राज्य में पांच हजार किलोमीटर सड़क थी जो अब 24 हजार किलोमीटर तक जा पहुंची है. नैसर्गिक जगहों का दोहन करने के लिए नए नए होटल व रिजोर्ट बनाये जा रहे हैं. रईसों को यहाँ जमीन भा रही है और इसके लिए वनों की अंधाधुंध कटान की जा रही है. पैसे देने में कोई कोताही नहीं बरतते हुए रईस एक से बढ़ कर एक लोकेशन कब्जे में ले रहे हैं. वीकेंड पे पहाड़ों की तरफ जानेवालों की भीड़ देखिये तो खुद बा खुद समझ आ जाता है कि पहाड़ों की ख़ूबसूरती ख़त्म क्यों हो रही है. 
ये चार कारण पहाड़ों ही नहीं मानव सभ्यता के लिए भारी पड़ रहे हैं जिसकी पहली मार हम खा चुके हैं. 

Saturday, June 22, 2013

प्रकृति दह्लाएगी सुध तभी आयेगी

हिमालयन सुनामी को सात दिन हो चुके हैं. 16 जून से अबतक काफी पानी बह चुका है. धीरे धीरे भयावह तस्वीरें सामने आने लगी हैं. हर दिन चौकाने वाले मामले सामने आ रहे हैं. हादसे की भयावहता बता रही है कि प्रकृति से छेड़छाड़ कितना विनाशकारी हो सकता है. पहले कभी इस तरह का हादसा हुआ हो, ऐसा कभी सुना नहीं गया. 40 हजार से ज्यादा लोग अभी अलग अलग जगहों पे फंसे हुए हैं. सरकार के आंकड़ों को माने तो अबतक 73 हजार लोगों को सुरक्षित जगह पहुँचाया जा चुका है. अलग अलग जगहों से आ रही ख़बरों पे भरोसा करें तो उत्तराखंड की पहाड़ी लाशों से पटी हुई है. वहां से जो सड़ांध बीमारी के साथ फैलेगी उसका अनुमान लगाते मन कांप जा रहा है.
अगर गंभीरता से देखा जाए तो भिन्न भिन्न मंचों से लगातार चेतावनी के बावजूद प्रकृति से छेड़छाड़ बढ़ रही है. पहाड़ों को तोडा जा रहा है, वन क्षेत्र ख़त्म किये जा रहे हैं, टूरिज्म के नाम पे पहाड़ों का दोहन हो रहा है, जंगल साफ़ कर मोटी कमाई के लिए कॉटेज बनाये जा रहे हैं, लकड़ी के लिए वन माफिया अलग चुनौती है. पहाड़ों का इको सिस्टम बिगड़ रहा है. जिसका नतीजा है हिमालयी आपदा. इस मामले की जाँच तो नहीं हो सकती कि बादल फटने के क्या कारण थे लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम परिवर्तन से भला कौन इनकार कर सकता है. तो प्रकृति ने अपने तरीके से चेतावनी दी है कि अगर खिलवाड़ नहीं रुका तो ऐसा ही होगा. ये मानना ही होगा कि प्रकृति और क्रूर हो सकती है. सभ्यता का विनाश भी इसी तरह होता है. 

Friday, June 21, 2013

सहस्राब्दि की आपदा

पहाड़ों की आपदा ने फिर कहीं कुछ हिला कर रख दिया है. कुछ आत्मविश्वास, कुछ आस्था, कुछ निष्ठा और कुछ समर्पण. केदारनाथ धाम में भगवान् शिव की दर पे पड़ी लाशें ये बता रही हैं कि अंधभक्ति से कुछ हासिल नहीं होनेवाला. सर्वशक्तिमान ने जो तय कर दिया वो होना है. इसलिए आप अपना काम करें और ईश्वर को अपना काम करने दें. ईश्वर को ये मंजूर नहीं कि कोई उसकी चाटुकारिता करे. हाँ, ये दीगर है कि उसे भूला न जाये. केदारनाथ का मंदिर अगर बच गया
है तो इसे चमत्कार नहीं माना जाना चाहिए क्योकि ये महज संयोग है कि विशालकाय बोल्डर मंदिर के पीछे किसी तरह बहाव से बच गया और उसने मंदिर को भी बचा लिया. कुछ बातों की ओर गौर करें: पहला - हादसे कि जद में आये चार जिलों में नदियों के किनारे हजारों लोग रहते थे. जिस तरह के दृश्य पिछले चार या पांच दिनों में देखने को मिले हैं उससे मरनेवालों का आंकड़ा हजारों में जाने की आशंका है. इस आपदा से देश की हाईटेक मौसम विभाग की पोल भी खुल गयी है. इतनी बड़ी आपदा की भनक भी न लगना सोचनीय है. मौसम पूर्वानुमान को लेकर बहुत काम करने की जरुरत साफ़ झलकती है.
ट्रेनिंग की भी सख्त जरुरत :  दूसरा - लोगों को अपनी सेहत का भी ध्यान रखने की जरुरत है. ये बात लोगों के मन में स्कूल के दिनों से ही भरनी चाहिए कि शारीरिक मजबूती कितनी जरुरी है. एनसीसी, एनएसएस, स्काउट आदि के जरिये इस तरह की ट्रेनिंग दी जा सकती है कि विपत्ति में कुछ बचाव कर सकें. फिलहाल ये कोर्स महज सर्टिफिकेट पाने का माध्यम होते हैं जो कहीं कहीं दस पांच नम्बरों का वेटेज दिला कर अपना रोल अदा कर देते हैं. सेना जब उल्लेखनीय काम कर रही है तो इसी तर्ज पर एनसीसी, एनएसएस, स्काउट आदि सहयोग क्यों नहीं कर सकते. चीन हो या इसराइल अपने हर नागरिक को फौजी की तरह मानते और प्रशिक्षित करते हैं तो गलत तो नहीं ही करते.